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एक अवांछित अ-पाठकीय प्रतिक्रि

arvind srivastava
arvind srivastava
from madhepura
13 years ago

 

अशोक गुप्ता / कथाकार एवं आलोचक दरअसल हिन्दी साहित्य की दुनिया में लोग अपना मत अभिमत स्थितियों की स्वंतंत्र मेरिट पर, यथा समय  व्यक्त नहीं करते बल्कि उसे शातिराना ढंग से खुद का दामन बचाते हुए, किन्ही भी अप्रत्यक्ष  मुद्दे पर हो-हल्ले के  बीच व्यक्त करते हैं जिसमें सही मुद्दा लगभग लोप हो जाता है.   कालिया जी का विरोध यहाँ उनकी बहुत सी किन्हीं दीगर वज़हों से हो रहा हो सकता है, जो संभवतः सही भी हों लेकिन तब लोग अपने निजी स्वार्थ के कारण चुप रहे, अब विभूति के बहाने जब एक शोर मचा तो सब इस उस समय की कसर एक साथ निकालने लगे. यह केवल एक शामिल बाजे में अपनी आवाज़ मिलाना हुआ. मैं इसे न रचनात्मक मानता हूँ, न साहसिक.।   विभूति नारायण राय के 'नया ज्ञानोदय ' को दिए गए साक्षात्कार नें  एक जबरदस्त हाहाकार की स्थिति खड़ी कर दी है इस का हो हल्ला इतना बेतरतीब मच रहा है कि सार्थक वैचारिकता का रास्ता ही अवरुद्ध हो गया है. विभूति के साथ पत्रिका भी लपेट में आई दिख रही है, जो भी है वह शोर है. ऐसे में मैं विचारपूर्ण ढंग से अपनी बात इस तथ्य के साथ रख रहा हूँ कि पत्रिका में मैंने यह इंटरव्यू नहीं पढ़ा  है लेकिन इस का सार, में समझता हूँ कि मुझ तक पहुंचा है. मेरी प्रतिक्रिया अ-पाठकीय इसीलिए कही गई है.  सबसे पहले तो यह कहूंगा की जो कुछ विभूति नारायण राय द्वारा कहा गया जाना सुना है वह निश्चित रूप से राय का मानसिक दिवालियापन सामने लाता है. दिए गए साक्षात्कार के अतिरिक्त यह निष्कर्ष उनके बाद के व्यवहार से भी निकाला जा सकता है. मेरी असली बात इस से शुरू होती  है और एकदम अलग है, और इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इस हो-हल्ले में उस बात का स्वतः खुल कर आना मुझे नज़र नहीं आ रहा है, हांलांकि वह कोई बहुत महीन बात नहीं है.  पहली बात. अगर किसी बड़ी पत्रिका में किसी नौसिखिया की कमज़ोर रचना छपती है तो यह पत्रिका के सम्पादकीय को लांछित करती है. लेकिन अगर किसी बड़े और स्थापित प्रबुद्ध की कमज़ोर या अभद्र लांछनीय अभिव्यक्ति किसी बड़ी पत्रिका के माध्यम से सामने आती है तो इसे पत्रिका का रचनात्मक कदम माना जाता है जो उस स्थापित प्रबुद्ध की तात्कालिक मानसिक संरचना को उजागर करता है, और यह एक अनिवार्यता है कि पाठक अपने प्रबुद्ध प्रतिनिधियों की विचार प्रक्रिया को उसी तरह जानते रहें जैसे वह सतत रूप से अपने निवेश के मूल्य को जानते हैं... वह पत्रिकाएँ ही है जो हमें यह आभास दिलाती हैं कि हमारी ओजोन की छतरी सलामत है या उसमें छेद होते जा रहे हैं. इसलिए मानसिक रूप से दिवालिया हुए प्रबुद्ध की सूचना देने की जिम्मेदारी निभाने वाली पत्रकारिता निंदनीय कैसे हो सकती है.. अगर 'नया ज्ञानोदय' विभूति की इस मानसिकता को उजागर न करता तो  हम कहाँ जान पाते कि हमारी पोटली में बंधा स्वास्थ्यप्रद फल अब सड़ गया है. इस लिए इस साक्षात्कार का छपना तो ज़रूरी था, वर्ना आम पुरुष नस्ल का प्राणी तो अपने दायरे में वह सब कहता ही है जो विभूति कह गए. इसलिए मुझे 'नया ज्ञानोदय' या रवीन्द्र कालिया की भूमिका को प्रश्न चिन्हित करने का कोई औचित्य नहीं दिखता, हाँ अगर कालिया जी उनके कहे को मिटा कर, या उसे माइल्ड कर के छापते तो ज़रूर उन पर यह इल्ज़ाम आता कि पंच के मुंह में परमेश्वर नहीं,  दोस्त बोला, जो पाठकों के प्रति अन्याय होता. मैं समझता हूँ कि रवीन्द्र कालिया नें तो सरे आम यह एलान करने की भूमिका निभाई है, कि सावधान... विभूतिया बौरा गया है, अब आगे वह जो  कहे उस पर संशय करना. उसकी कलम से 'प्रेम की भूत कथा' लिखा जाना या तो एक हादसा  है या रचनात्मकता के उत्कर्ष की अंतिम बूंद. इस नाते रवीन्द्र कालिया पर कोई निंदा प्रकरण नहीं ठहरना चाहिए, ऐसा मैं वह साक्षात्कार बिना पढ़े कह सकता हूँ.   दूसरी बात. स्त्री को बस देह  और उसे पुरुष अधिकृत वस्तु मानने की परंपरा हमारे देश में आदिकालीन है, तब से, जब संज्ञा शून्य और निशब्द बने रहना स्त्री की स्वतः स्थापित छवि थी.   समय बदला, स्त्री की मूक छवि बदली, वह संज्ञा शून्य भी नहीं रही और ऐसे में उसे अपने वस्तु होने  का एहसास हुआ. उसमें यह कसमसाहट तो रही कि वह वस्तु से व्यक्ति हो जाय लेकिन यह किला उसे अभी दूर लगा तो उसने पहले वह यह स्थापित करना चुना कि अगर स्त्री वस्तु है भी तो वह पुरुष से अधिकार की वस्तु न होकर स्वयं अपने अधिकार की वस्तु होगी. स्त्री  के वस्तु होने का तात्पर्य उसकी देह को ही उसका पर्याय पुरुष ने बनाया और हाल के दौर में स्त्री ने अपनी देह तो अपनी पूंजी मान कर बरतना शुरू कर दिया.  दरअसल, स्त्री स्वातंत्र्य की दिशा में इसे स्त्री का प्रस्थानबिन्दु मन जा सकता है, जिसने विभूति नारायण राय समेत पुरुष समाज को परेशां कर दिया  असली विचारणीय मुद्दा यह है कि पुरुष के लिए ' छिनाल ' विशेषण जैसा क्या शब्द है, अगर है तो उसका क्या दंड है.. ?   पुरुष समाज में इस वर्ग की गिनती कितने प्रतिशत है, और इस दशा में वह अपनी स्त्री के सामने अपना चेहरा कैसे प्रस्तुत करता है..? वह स्थिति अब  दूर नहीं है जब स्त्री पूरे  आवेग से इस पड़ाव को पीछे छोड़ते हुए वस्तु से व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने तो आग्रह करने लगेगी... तब विभूति जैसे लोग क्या करेंगें, जब कि उनको अभी से पगलाहट नें घेरना शुरू कर दिया है.. सचमुच, यह सिर्फ उनका ही नहीं समूचे पुरुष समाज का प्रलाप है, उसमें वह पुरुष भी शामिल हैं जो विभूति का विरोध करते दिख रहे हैं. कौन पुरुष ऐसा है जो स्त्री को स्वायत्त होते, स्वतंत्र होते और आत्मनिर्भर होते सह सकता है....? मुझे तो लगता है कि राय का यह विरोध भी एक छद्म अभिनय है, वर्ना यह तो समूचे पुरुष वर्ग की स्त्री के लिए उपयुक्त शब्दावली है. विभूति तो इसे मंच से बोल गए और कालिया जी ने उसे प्रकाशित कर दिया. यह एक आन्दोलन की शुरुआत है, जहाँ से स्त्री वस्तु से व्यक्ति होना शुरू कर सकती है, अपनी देह की दीवार को पार कर सकती है.. हंस के जुलाई अंक में प्रकाशित मेरी कहानी, "एक बूंद सहसा उछली  " इस बात का  संकेत पहले ही दे चुकी है.  पत्रकारों और संपादकों को ऎसी स्थितियों को भी निर्भीकता पूर्वक दरआइना करने के लिए तैयार रहना चाहिए. अशोक गुप्ताB 11/45 sector 18Rohini DELHI 110089Mob: 09871187875