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अपनी खोपड़ी के प्याले में लगातार उठते सवालों के सैलाब से परेशान। कुछ भी न कर पाने के अहसास से ग्रस्त और त्रस्त और सब कुछ कर लेने की जल्दबाज़ी में ध्वस्त। कभी सुबह हौसले पस्त तो कभी शाम को मनवा मस्त। ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त। हाए कि अभागे को अमीर लोग हक़ीर समझते हैं और ग़रीब लोग रईस। (मध्य वर्ग जो मध्यमार्ग और अवसर वादिता को पर्यायवाची बना चुका है, के बारे में मैं क्यों कुछ कहूँ!) आधे समझते हैं कि च्च...च्च...बेचारा विलोम-संसर्ग से नितांत अछूता है तो बाक़ी मानते हैं कि काईयां किसी को नहीं छोड़ता है। लल्लू और चालू होने की उपाधिओं के बीच निरंतर लटकते हुए। इमेजवादियों की दुनिया में वास्तविक होने की मूर्ख-चिंता में सिर धुनते हुए।