अफीम की पिनक

Rajeev R Srivastava
Rajeev R Srivastava
from New Delhi
14 years ago

इन दिनों जो फिल्में व टीवी कार्यक्रम आ रहे हैं, उन्हें मोटे तौर पर निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:- 1. हॉलीवुड की वे फिल्में जिन्हें पहले सामान्यत: स्टंट फिल्मों के नाम से जाना जाता था 2. इनसे प्रेरित भारतीय विशेषकर बंबईया फिल्में, 3. बॉलीवुड की तथाकथित सामाजिक फिल्में 4. टीवी के सीरियल 5. रीयलिटी शो और 6. टीवी के कथित समाचार कार्यक्रम। यदि इन सबका अलग-अलग और विस्तार में परीक्षण हो तो यह जाना जा सकता है कि जनसंचार के ये दो प्रभावी माध्यम किस तरह से हमारी निजी व सामाजिक सोच को एक नए सांचे में ढालने की कोशिश कर रहे हैं और इनका हमारे भावी जीवन पर क्या असर पड़ेगा। हॉलीवुड में अच्छी फिल्में भी बनती हैं। लेकिन वे भारत में सीमित रूप में प्रदर्शित होती हैं, जबकि स्टंट फिल्में टीवी के माध्यम से चौबीसों घंटे दिखाई जा रही हैं। इनमें अक्सर कोई महाबली नायक होता है जैसे सुपरमैन, स्पाइडरमैन या रैम्बो जो अविश्वसनीय पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए अकेले अपने दम पर विजय हासिल करता है। ऐसी फिल्मों में कम्युनिस्ट या इस्लामी आतंकवादी खलनायक की भूमिका में दिखाए जाते हैं। इन फिल्मों का राजनैतिक एजेंडा रैम्बो सीरीज की एक ताजा फिल्म ''जॉन रैम्बो'' से समझा जा सकता है, जिसमें एकांतवासी और अवकाशप्राप्त नायक एक बार फिर शस्त्र उठाने के लिए मजबूर होता है। इसमें बर्मा (म्यांमार) के सैनिक शासन को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पिछले कई सालों से नजरबंद आंग सांग सू ची के घर तक जो दुस्साहसी अमेरिकी रात के अंधेरे में पहुंचा, वह इस फिल्म से अगर प्रभावित हुआ हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस तरह की जिन फिल्मों में ऐसे महाबली नहीं होते उनमें नायक की भूमिका अक्सर अमेरिकी सैनिक निभाते हैं। हमारे यहां याने बॉलीवुड में भी इसी तर्ज पर बहुत सी फिल्में बन चुकी हैं और लगातार बनते जा रही हैं। हमें यह सुविधा भी है कि पाकिस्तान को आसानी से खलनायक की भूमिका में खड़ा कर सकते हैं। इनमें से कुछ तो सीधी-सीधी अमेरिकन फिल्मों की कापी होती हैं। कुछ में अपनी तरफ से भी कल्पनाशीलता का परिचय दिया जाता है। इनमें कभी-कभी जेम्स बॉण्ड शैली में प्रेम प्रदर्शन या जैकी चान की शैली में करतबों का प्रदर्शन भी हो जाता है। इस शैली की एक फिल्म कुछ समय पहले आई ''द वेडनसडे'', जिसमें नायक नसीरुद्दीन शाह आम जनता का नुमाइंदा बनकर अकेले ही आतंकवाद का सामना करने के लिए निकल पड़ते हैं। इन फिल्मों को पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन दिखाकर हमारे टीवी चैनल अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण भी देते हैं। बॉलीवुड की फिल्मों में दूसरा नया रंग है उन फिल्मों का जो दर्शकों के लिए एक नए व अनदेखे संसार की रचना करती हैं। इसमें एक तरफ वे फिल्में हैं जिन्हें कॉमेडी की श्रेणी में रखा जा सकता है और दूसरी तरफ वे जो किसी इंद्रलोक में ले जाती हैं। इन दोनों तरह की फिल्मों में यह समझ नहीं आता कि भारत कहां है। कॉमेडी वाली फिल्में दर्शक को कभी गोवा, तो कभी मुंबई, तो कभी और किसी पर्यटन स्थल पर ले जाती हैं और पूरे समय फिल्मी कलाकार किस्म-किस्म की जोकराई हरकतें करते नजर आते हैं। ये फिल्में सामान्य जीवन से लुप्त हो रहे हास्य की ज्यों क्षतिपूर्ति करती हैं। इंद्रलोक की फिल्मों में विदेश की लोकेशन, असीमित वैभव, अकल्पनीय सुख साधन और एनआरआई जैसा कुछ होना शायद अनिवार्य ही होता है। ये फिल्में मनोज कुमार की तथाकथित देशभक्ति वाली फिल्मों का आधुनिक संशोधित और परिवर्तित संस्करण हैं। इनमें ''पश्चिम की भोगवादी संस्कृति'' का पूरा आनंद लूटने के साथ-साथ अंतत: ''भारतीय संस्कृति'' का अनुसरण करने का संदेश निहित होता है। विदेशों में बसे, डार से बिछुड़े किन्तु डालर से चिपके भारतीयों को ऐसी फिल्में अवश्य भाती होंगी। देश की विभिन्न भाषाओं में चौबीस घंटे चलने वाले टीवी चैनल भी इस दिशा में अमूल्य योगदान कर रहे हैं। ''बुनियाद'' और ''हम लोग'' के दिन लद चुके हैं। अब जो सीरियल आ रहे हैं उनमें विषय वस्तु पर बात करना उतना आवश्यक नहीं है जितना उनकी भौतिक दृश्यावली पर। इन सीरियलों में लगभग नियमत: गुजरात, राजस्थान और पंजाब का ही वातावरण चित्रित किया जाता है। शायद इसलिए कि सीरियल के प्रायोजक विज्ञापनदाता अपने मार्केट सर्वे के द्वारा इनकी क्रय-क्षमता से वाकिफ हैं। फिर उसमें भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुए धार्मिक प्रतीकों का पुट देना जैसे अनिवार्य होता है। ये सीरियल किसी हद तक एनआरआई नुमा फिल्मों का ही लघु संस्करण होते हैं। कॉमेडी वाले सीरियल भी अक्सर इसी पृष्ठभूमि में निर्मित किए जा रहे हैं। इन सीरियलों की जो दशा है वही रीयलिटी शो की भी है। हाल-हाल में तीन-चार ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने आए। देखने लायक बात यह है कि जब ऐसे किसी कार्यक्रम पर सार्वजनिक विरोध के स्वर उठने लगते हैं तो स्वयं चैनल वाले आगे आकर इन पर बहस प्रारंभ कर देते हैं। इससे थोड़ी देर के लिए यह भ्रम फैल जाता है कि चैनल अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति सजग हैं और इस तरह विवाद पर ठंडा पानी पड़ जाता है। यह देखना भी दिलचस्प है कि बहुत से पत्रकार और अपने आपको समाज का ठेकेदार कहने वाले लोग भी ऐसे कार्यक्रमों के पक्ष में आकर सामने खड़े हो जाते हैं। इन समर्थकों का एक स्थायी तर्क है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का। टीवी पर समाचार के रूप में जो कार्यक्रम आते हैं वे भी इन कार्यक्रमों से कोई बहुत ज्यादा भिन्न नहीं हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि टीवी ऐसी खबरों में ही ज्यादा रुचि लेता है जिनसे सनसनी फैलती है। इसके लिए कार्यक्रम निर्माताओं को आधे-अधूरे तर्कों या असत्य का सहारा लेने में संकोच नहीं होता। भारत के अखबारों याने प्रिंट मीडिया ने इन चैनलों के सामने अपने आपको दूसरे दर्जे का मानकर आत्मसमर्पण कर दिया है। वे भी अब टीवी के साथ मिलकर सनसनी फैलाने या गैरारूरी मुद्दों पर बहसें चलाने में अपना उध्दार देखने लगे हैं। समलैंगिकता के मुद्दे पर जिस तरह का रससिक्त कवरेज टीवी व अखबारों ने किया वह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसके पक्ष में बात करने वाले खजुराहो और प्राचीन पुस्तकों तक जाकर प्रमाण जुटा रहे हैं। अगर प्राचीन काल में सब कुछ सही था तब तो इस तर्क से सती प्रथा का भी समर्थन होना चाहिए। इन सब बिंदुओं को समग्रता में देखा जाए तो समझना कठिन नहीं है कि जनसंचार के माध्यम खासकर सिनेमा व टीवी, उससे कुछ कम समाचार पत्र तथा किसी सीमा तक एफएम रेडियो इस देश में एक नया एजेंडा लागू करने में जुटे हैं। ''सच का सामना'' हो या ''राखी का स्वयंवर'' या समलैंगिकों की रैली अथवा अदालत का फैसला, इन तमाम बातों का भारतीय समाज की मूल चिंताओं से कितना सरोकार है? यह डेढ़ सौ साल पुराना इतिहास है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारतीय आढ़तियों के माध्यम से किस तरह चीन की जनता को अफीम की पिनक में सुलाने का षडयंत्र क्रियान्वित किया था। आज अफीम का स्थान मास मीडिया के इन कार्यक्रमों ने ले लिया है। धर्म, अध्यात्म, अर्थ, काम, प्रहसन, असंभव शौर्य आदि के मिश्रण से जो रस बनाकर आकर्षक सज्जा व परिवेश में पेश किया जा रहा है, वह आबादी के एक बड़े हिस्से को (जिसमें बच्चे, नौजवान व महिलाओं पर खास जोर है) एक लंबी मीठी जहरीली नींद में सुलाने के लिए ही। हमारे बीच जो ज्ञानीजन जनसंचार माध्यमों की भूमिका का अध्ययन अथवा इनके कार्यक्रमों का विश्लेषण करते हैं, वे खंड-खंड एवं तात्कालिक प्रसंग पर बात करने के बजाय यदि समग्र दृष्टि से विचार करने की सोचें तो शायद इस षडयंत्र की कोई काट निकले, कोई ऐसी नीति बनने का रास्ता खुले जिससे संचार माध्यमों का इस्तेमाल लोकमंगल के लिए हो सके!

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